मां काली
हिन्दू मान्यताओं में 33 करोड़ देवी-देवताओं का जिक्र किया गया है, जिनमें से एक हैं मां काली। मां काली के चमत्कारों से जुड़े अनेक किस्से हमारे पौराणिक इतिहास में विद्यमान हैं। इन्हीं किस्सों या कहानियों में से एक है मां काली के दक्षिणेश्वर मंदिर का निर्माण।
दक्षिणेश्वर काली मंदिर
दक्षिणेश्वर काली मंदिर का निर्माण एक शूद्र जमींदार की विधवा पत्नी रासमणी ने करवाया था। जिस दौर में इस मंदिर का निर्माण हुआ उस काल में संपूर्ण बंगाल में कुलीन प्रथा जोरों पर थी। ऐसे में एक शूद्र स्त्री द्वारा इस मंदिर का निर्माण और साथ ही इस मंदिर को समाज द्वारा स्वीकार करने के पीछे एक अद्भुत कथा छिपी हुई है।
रासमणी
बंगाल के एक जमींदार राजचंद्र की पत्नी रासमणी को एक रात स्स्वप्न में स्वयं मां काली ने आकर दर्शन दिए। स्वयं काली ने उन्हें एक ऐसे स्थान का परिचय करवाया जहां उस मंदिर का निर्माण होना था।
मंदिर का निर्माण
धन की कोई कमी ना होने की वजह से रासमणी ने मां काली को समर्पित इस मंदिर का निर्माण करवाने की ठान ली। सन 1847 में मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ जो करीब 8 वर्षों तक चला। इस मंदिर को बनवाने में 9 लाख रुपए की लागत आई और इस मंदिर को भवतारिणी मंदिर के नाम से पहचान मिलने लगी।
कुलीन प्रथा
लेकिन अफसोस कि समाज में छुआछूत की प्रबलता के कारण एक शूद्र स्त्री द्वारा मंदिर का निर्माण करवाए जाने की वजह से कोई भी ब्राह्मण इस मंदिर का पुजारी बनने के लिए तैयार नहीं था। ना तो धन की कमी थी ना ही सामाजिक आन की लेकिन बस शूद्र होने की वजह से रासमणी के मंदिर में कोई पुजारी धार्मिक कार्य करने के लिए तैयार नहीं हो रहा था।
रामकृष्ण के बड़े भाई बने पुजारी
अंतत: रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई ने भाई ने इस मंदिर का पुजारी बनना स्वीकार किया। रासमणी को उन्होंने कहा कि एक शू का मंदिर होने की वजह से कोई भी व्यक्ति यहां पूजा करने नहीं आएगा। इसलिए वह इस मंदिर को उनके यानि ब्राह्मण के नाम से चलाएं। रासमणी ने उनकी बात मान ली और अंतत: वह मंदिर परमहंस के नाम से ही जाना जाने लगा।
रानी रासमणी
रासमणी को लोग रानी रासमणी के नाम से भी जानते हैं। ‘रानी’ उनकी कोई औपचारिक पदवी नहीं थी बल्कि उनके दयालु स्वभाव और गरीबों के लिए अथक प्रेम की वजह से उन्हें रानी रासमणी कहा जाने लगा।
परमहंस की अवस्था
दक्षिणेश्वर काली मंदिर का रामकृष्ण परमहंस से बेहद अनूठा संबंध है। इसी मंदिर में मां काली की आराधना करते हुए ही रामकृष्ण ने परमहंस की अवस्था प्राप्त की थी।
अलग थे परमहंस
वैसे तो हर मंदिर का एक पुजारी होता है, जो अपनी आमदनी के लिए मंदिर के देव-देवी की पूजा करता है, उनकी सेवा करता है। लेकिन इस मामले में रामकृष्ण परमहंस थोड़े अलग थे। रामकृष्ण, मां की पूजा तो करते ही थे लेकिन साथ ही मां काली की पत्थर की मूर्ति को घंटों निहारते रहते और ना जाने उनके चेहरे में क्या ढूंढ़ते थे।
भूख-प्यास से बेपरवाह
वे भूखे-प्यासे सिर्फ मां काली को निहारते रहते और भीतर ही भीतर यह सोचते रहते कि कब उनकी आराध्या उन्हें दर्शन देंगी। रामकृष्ण परमहंस, मां काली के सामने रोते रहते, जैसे कोई बालक वाकई अपनी मां से बिछुड़ गया हो। वे अपनी आराध्या से बस यही कहते रहते थे कि वे उन्हें अपना असली स्वरूप दिखाएं, उन्हें दर्शन दें।
मां काली के दर्शन
मंदिर में उपस्थित अन्य लोग उन्हें पागल तक समझ बैठते थे। अपनी मां से दूर रहते हुए परमहंस बेहद निराश और हताश हो चुके थे। वे काली मां के चरणों में बैठकर खड्ग से अपना सिर काटने ही वाले थे कि स्वयं मां काली ने उनका हाथ पकड़, उन्हें रोक दिया।
सखा के रूप में काली
मां काली का स्वरूप देखकर रामकृष्ण एक ऐसी अवस्था में पहुंच गए जहां उन्हें भौतिक जीवन से कोई मोह नहीं रहा। वे सांसारिक रिश्तों से काफी ऊपर उठ चुके थे और समस्त संसार उनके लिए दैवीय लोक बन गया था। उस दिन के बाद जब तक वे जीवित रहे तब तक मां काली उनकी अपनी माता और सखा के तौर पर उनके साथ रहीं।
कृष्ण का मंदिर
दक्षिणेश्वर काली मंदिर के प्रांगण में मां काली के अलावा शिव और कृष्ण के मंदिर भी हैं। जहां एक ओर सामान्य मान्यता के अनुसार घरों में खंडित मूर्ति रखना अशुभ माना जाता है, वहीं आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन भगवान कृष्ण को समर्पित राधा-गोविंद मंदिर में कृष्ण की खंडित मूर्ति की ही पूजा की जाती है।
खंडित स्वरूप
दक्षिणेश्वर काली मंदिर में कृष्ण के खंडित स्वरूप की पूजा क्यों की जाती है, इसके पीछे भी एक अद्भुत कथा और रामकृष्ण परमहंस के उपदेश जुड़े हैं।
पांव में चोट
एक बार की बात है, मंदिर बनकर तैयार था, जन्माष्टमी के अगले दिन राधा-गोविंद मंदिर में नंदोत्सव की धूम थी। दोपहर की आरती और भोग के पश्चात कृष्ण को उनके शयन कक्ष में ले जाते समय कृष्ण की मूर्ति धरती पर गिर गई, जिसकी वजह से उनका पांव टूट गया।
अमंगल का क्षण
सभी के लिए ये अमंगल का क्षण था, सभी भक्तजन इसी पशोपेश में थे कि उनसे ऐसा क्या अपराध हुआ है जो कृष्ण उनसे नाराज हो गए हैं। वे आने वाले प्रकोप से भयभीत थे।
ब्राह्मणों का सुझाव
रानी रासमणी भी बेहद चिंतित थीं। उन्होंने ब्राह्मणों की सभा बुलाई और उनसे विचार-विमर्श किया कि इस खंडित मूर्ति का क्या किया जाए। ब्राह्मणों ने यह सुझाव दिया कि इस मूर्ति को जल में प्रवाहित कर इसके स्थान पर नई मूर्ति को विराजित किया जाए।
अद्भुत कथन
लेकिन रासमणी को ब्राह्मणों का यह सुझाव पसंद नहीं आया। अंतत: वे रामकृष्ण परमहंस के पास गईं, जिनके भीतर उनकी गहरी आस्था थी। रामकृष्ण परमहंस ने उनसे जो कहा वह अद्भुत था।
परमहंस का सुझाव
रामकृष्ण का कहना था कि जब घर का कोई सदस्य विकलांग हो जाता है या माता-पिता में से किसी एक को चोट लग जाती है तो क्या उन्हें त्याग कर नया सदस्य लाया जाता? नहीं बल्कि उनकी सेवा की जाती है।
कृष्ण की देखभाल
बस फिर क्या था रासमणी को परमहंस का यह सुझाव बहुत पसंद आया और उन्होंने निश्चय किया कि मंदिर में कृष्ण की इसी मूर्ति की पूजा की जाएगी और साथ ही उनकी देखभाल भी होगी।
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